Sunday, 28 July 2013

मुसलमानो में इख़्तिलाफ़ क्यों?

हर धर्म के मानने वालों में आपस में भी बहुत से विषयों पे मतभेद हुआ करता है | इस्लाम के माने वालों में भी ऐसे कई मतभेद है जिसका फायदा लोग उठा के उनमे आपस में टकराव पैदा कर दिया करते हैं| जबकि इस्लाम दींन-ए- इलाही है और मुसलमानों का मार्गदर्शन अल्लाह की किताब कुरान करती है और कुरान में क्या है, उसपे कैसे चला जाए। यह अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद (स.अ.व) ने बताया | दुनिया का हर मुसलमान इस बात को मानता है और इसमें कहीं कोई मतभेद नहीं है | मतभेद तब शुरू हुआ जब हज़रात मुहम्मद (स.अ.व) दुनिया से चले गए| बादशाहत के लालची लोगों के लिए यह एक सुनहरा मौक़ा था। जिसका उन्होंने भरपूर फायदा उठाया और ऐसा करने में उनके आगे रुकावट था हज़रात मुहम्मद (स.अ.व) की औलाद और उनके सहाबी जो अभी भी हक और बातिल का फर्क जानते थे |

यहीं से शुरू हुआ हजरत मुहम्मद (स.अ.व) के घराने पे और उनके सहबियों पे ज़ुल्म। सबसे पहले हजरत मुहम्मद (स.अ.व.) के बेटी फातिमा (स.अ) को हज़रात के दुनिया से जाने के ७५ या ९५ दिन के बाद ही शहीद किया गया। उस समय जनाब हजरत फातिमा की उमर केवल १८ साल की थी | फिर कुछ वर्षों के बाद जनाब फातिमा (स.अ) के पति हज़रात अली (अ.स) जो मुसलमानों के खलीफा भी रहे उनको शहीद किया गया, फिर हज़रात अली (अ.स) और जनाब हजरत फातिमा (स.अ.व) के बड़े बेटे हसन को शहीद किया गया और उसके बाद इमाम हुसैन (अ.स) को कर्बला में शहीद किया गया ,फिर उनके बेटों को और फिर उन बेटों के बेटों को शहीद किया जाता रहा | हज़रात मुहम्मद (स.अ,व० के इस घराने पे ज़ुल्म करने वाला हमेशा उस समय का बादशाह या उनके आदमी और सहयोगी रहे।
इस प्रकार इस्लाम को मानने वाले दो हिस्सों में बाँट गए | एक बादशाहत के बताये हुए इस्लाम पे , जहाँ ज़ुल्म की जगह थी और दूसरा हज़रात मुहम्मद(स.अ.व) के घराने के बताये रास्ते पे, जहां ज़ुल्म की कोई जगह नहीं थी | यह और बात थी दोनों की किताब एक ही रही, पैगम्बर भी वही थे। लेकिन मतभेद था जिसका फायदा मुल्लाओं के बखूबी लिया और इन मतभेदों के आधार पे फिरके बना के मुसलमानों को फिरको में बांटा और अपनी रोज़ी रोटी की दूकान चलाने लगे | सच यही है कि मुसलमानों में कोई फिरका नहीं है और कोई मतभेद भी नहीं है | बस ज़रूरत हैं अपने इस्लाम के बारे में अपने इल्म को बढाने की क्योंकि मुसलमानों के बीच इख़्तिलाफ़ का एक बहुत बड़ा कारण सामने वाले की आस्था, विश्वास, आमाल और अख़्लाक़ के बारे में जानकारी का ना होना है। जानकारी का न होना ग़लत फ़ैसलों का कारण बनती है। |

फिरकाबंदी का मतलब है कि किसी की सोच, राय, बात या आमाल कि बुनियाद पर सबसे अलग होकर अपना एक गिरोह या जमात बना लेना | ताज्जुब की बात हैं की वही खुदा वही रसूल (सव), वही सब मुसलमानों का किबला रुख हो के अरबी में नमाज़ पढना और हज के मौके पे एक ही काबा का तवाफ़ करना फिर भी इतने फिरके ? खुद को मुसलमान कहने की जगह खुद को कोई सुन्नी कहता है, कोई शिया, हनफ़ी, हम्बली, मालिकी, शाफई, देवबंदी, बरेलवी, कादरियाह, चिश्तियाह, अहमदिया, जाफरियाह, वगैरह वगैरह और उस से अधिक ताज्जुब की बात है की सभी के पास उनके नज़र से एक से एक पढ़े लिखे इस्लाम के ठेकेदार मुल्ला हैं फिर भी जहालत की इन्तहा यह की इतने फिरके? आज मुसलमानों को इस बात को समझने की आवश्यकता है कि मुसलमानों में कोई भी फिरका नहीं होता और ना ही यह बात कुरान की नज़र में सही हैं और ना ही हजरत मुहम्मद (स.अ.व) ने इसे जायज़ करार दिया है | इस्लाम में तो हक और बातिल हुआ करता है न जाने यह फिरका कहाँ से आ गया ?

ऐसा नहीं की फिरका (समूह) बना लेना मुसलमनो में ही है बल्कि इस वजूद सभी धर्मो में हमेशा से रहा है |
अल्लाहताला ने कुरआन में बताया है, “यहूद ने कहा ‘नसारा किसी बुनियाद पर नहीं’ और नसारा ने कहा ‘यहूद किसी बुनियाद पर नहीं’ हालाकि वे दोनों अल्लाहताला कि किताब पढते है” (सुरह बकरह:११३) ,
अल्लाहताला ने कुरआन में कुछ इस तरह बयान किया है, “जिन्हों ने अपने दीन के टुकडे टुकडे कर दिए और गिरोह (फिरको) में बंट गए, हर गिरोह (फिरका) उसी से खुश है जो उसके पास है” (सुरह अर् रूम:३२), अल्लाह ने इसकी वजह भी बताई है की उन्होंने अपने आलिमो और दरवेशों (संतो) को ‘रब’ बना लिया है.(सुरह तौबा:३१) और इसके लिए नाराज़गी भी जताई “जिन लोगो ने अपने दीन के टुकडे टुकडे कर दिए और गिरोह (फिरकों) में बंट गए, (अय नबी) तुमको उनसे कुछ काम नहीं. उनका मामला बस अल्लाह के हवाले है. वही उन्हें बतलायेगा कि वे क्या कुछ करते थे.” (सुरह अल अनाम:१५९)

अल्लाह ने मुसलमानों में इतहाद कायम रखने के लिए उनको नमाज़ अरबी में पढना आवश्यक बना दिया, जुमा की नमाज़ की अहमियत इसलिए अधिक की क्योंकि यहाँ हर मुसलमान एक दुसरे से अपने मसाइल को हल करे, हाज इसी लिए किया की यहाँ दुनिया भर के मुसलमान जमा हो के एक दुसरे को समझें | लेकिन दुःख की बात है ऐसा कम लोग ही कर पाए और यह इस्लाम बादशाहत और मुल्लाओं के जाती फायदे लेने के कारण फिरको में बंट गया और वहीँ पे उनमे मतभेद हुआ जहां एक रहने की हिदायत आयी थी।
“अय एहले किताब, आओ एक ऐसी बात कि ओर जो तुममे और हम में एक सामान है. वह यह कि हम अल्लाहताला के सिवा किसी और कि इबादत ना करे और ना उसके साथ किसी चीज को शरीक करे और ना हममें से कोई एक दूसरे को अल्लाहताला के सिवा किसी को रब बनाये. फिर यदि वोह इससे मुंह मोड ले तो कह दो गवाह रहो हम तो ‘मुस्लिम’ है.” (सुरह आले इमरान:६४)

“अय ईमानवालो, अल्लाहताला का हुक्म मानो और रसूल(स.अ.व.) का हुक्म मानो और तुममे जो अधिकारी (जो इस्लाम की रहनुमाई का हक रखते हैं ) है उनकी बात मानो. फिर अगर तुममे किसी बात पर इख्तिलाफ (मतभेद) हो जाए तो उसे अल्लाहताला और रसूल(स.अ.व.) कि ओर लौटा दो अगर तुम अल्लाहताला और आखिरत पर ईमान (यकीन) रखते हो. यह तरीका सर्वश्रेष्ठ है और इसका अंजाम बहेतर है (सुरह निशा:५९)
मुसलमानों को चाहिए की आपसी मतभेद को नज़रंदाज़ करते हुए गुनाहों से और गुनाहगारो से दूरी अख्तियार करें ,इंसानों में आपस की दुरी समाज के और इस्लाम के हित में नहीं |धार्मिक मतभेद इतने बड़े नहीं की इंसानियत भूल जाए |
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अनुकरणीय व्यक्तित्व

मो. रफीक चौहान(एडवोकेट)

इतिहास गवाह है जब-जब इन्सान धर्म के मार्ग से विचलित हुआ है। तो उसे सही रास्ता दिखाने, धर्म के अनुसार चलने और मर्यादित जीवन बीताने के उद्देश्य से विभिन्न समय और देश-समाज में विभिन्न महापुरुषों और धर्मप्रवतकों ने जन्म लिए है। जिन्होंने उस समय की परिस्थितियों और आवश्यकता के अनुसार समाज और मानव में आई विकृतियों, बुराईयों और दोषों को दूर करने के लिए लोगों का मार्गदर्शन किया है। ऐसे में देश और काल की परिस्थितियों के कारण कुछ महापुरुषों और धर्म प्रवतकों की विचारधारों में सामाजिक और दार्शनिक पहलुओं पर नैतिकता की स्थापना पर बुनियादी अन्तर दिखाई देता है।

उन्होंने इन्सान के व्यक्तित्व के किसी एक पहलु पर अपेक्षाकृत अधिक बल दिया है। जैसे कि वेदान्त दर्शन शुद्ध रुप से अव्यावहारिक और घोर आत्मवादी है। जो संसार को माया मृग मरीचिका और जगतिक अस्तित्व को मात्र एक स्वप्न मानता है। वो कहते हैं “माया महा ठगिनी हम जानी, त्रिगुण फांस लिए कर बोले, बोले मधुर बानी” और “ जल में कुम्भ, कुम्भ में जल, कुम्भ फुटा जल जल ही समाना ये तत ना ज्ञानी जाना” जैसी उक्तियों को कह कर आत्मवादी पंथ के समथर्क इस दुनियां के अस्तित्व को नकारते और संसार को एक मुसाफिरखाना समझकर यूं कहते हैं। “ पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात। देखत ही छिप जाएगा, जयों तारा प्रभात” अर्थात इन्सान का जीवन इस संसार में एक पानी के बुलबुले के समान है जो देखते ही देखते समाप्त हो जाता है।

इस के विपरित चार्वाक दर्शन शुद्ध् रुप से भौतिकवादी और स्वच्छंदता वादी है। जबकि मार्क्सवाद अर्थ प्रधान और फ्रायड मनोविश्लेषवादी काम प्रधान है। ये सभी इन्सान के कर्मों में मूल रुप से वसाना प्रभुत्व मानते हैं। जबकि बौद्ध् धर्म मूलत: पलायनवादी, दुखवादी और निराश भाव प्रधान है। दुसरी और मूर्ति पूजा और अवतारवाद अवैज्ञानिक तर्कों पर अधारित है। जबकि हम जिन्दगी रुपी नाव को एक-एक पहलु और एक-एक टुकड़े की पतवार के सहारे और भरोसे इस संसार रुपी सागर को पार नहीं कर सकते और न ही जिन्दगी के उसली मकसद को ही हासिल कर सकते।

जबकि हजरत मुहम्मद साहब (सल्ल0) का योगदान इस सन्दर्भ में मानव समुदाय के लिए महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय रहा है। आप की दृष्टि से इन्सान के जीवन का कोई ऐसा पहलु नहीं बचा। जिसके बारे में आपने अपने विचार व्यक्त न किए हों। आपकी शिक्षाएं शाश्वत सार्वकालिक, सम्पूर्ण और वैज्ञानिक हैं। जो दुनियां के अन्य धर्म प्रवर्तकों, दर्शनिकों, तर्कशास्त्रियों और चिंतकों में विशिष्ट स्थान प्रदान करती है। आपने जीवन-दर्शन, आत्मा-परमात्मा, जीवन-जगत, लोक-परलोक, अमल-उसुल, व्यक्ति और समाज में एक सुन्दर समन्वय व समांजस्य बैठाने का प्रयास किया है। आपने इन्सानों को एक निराकार ईश्वर के प्रति आस्था रखते हुए, संयम पूर्वक जीवन निर्वाह करने का संदेश दिया है। आपने दुनियां को मायावी नगर कहकर व्यक्तिगत, परिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियों से भागने की बजाए अपने कर्म, व्यवहार और आचार विचार को उंचा उठाने पर बल दिया है।

उस समय के असभ्य समाज में प्रचलित कन्या-हत्या, नशा और मुर्ति पुजा जैसी कुरीतियों को खत्म करने के लिए इस्लाम की शक्ल के रुप में जीवन की एक ऐसी बुनियाद रखी जो मुकम्मल, पुख्ता और वैज्ञानिक सोच पर आधारित है। जिसमें आदमी और औरत के किरदार को उंचा बनाने के लिए रोजा, नमाज, जकात, तौहीद और हज को एक मजबुत सीढ़ी बनाया गया है। रोजा और नमाज जहां जीवन में आत्म ज्ञान और चरित्र बल देता है वहीं इन्सान तौहीद से धार्मिक भटकाव से बचता है। जबकि जकात सामाजिक बराबरी और हज सामुहिकता एंव व्यापकता को बोध करती हैं।

हजरत मुहम्मद साहब (सल्ल0) ने विश्व समुदाय को एक ऐसा जीवन दर्शन प्रदान किया है जो बहुयामी है। जिसमें जीवन के पहलु पर मार्ग दर्शन किया है। आप नेता ही नहीं बल्कि कामयाब व्यापारी, सैनिक, चिंतक, धर्मोंपदेशक, तत्वचिंतक, दार्शनिक और तपस्वी के साथ एक सफल गृहस्थी भी थे। आपकी शिक्षा में अर्थशास्त्र, धर्म-आघ्यात्म, समाजशस्त्र, लोकव्यवहार आदि ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न शाखाओं का सुन्दर निचौड़ है। जो शताब्दियों से विश्व के देशों और बुद्धिजीवियों को अपनी ओर आर्कषित करता आ रहा है। यहीं कारण है कि इस्लाम की शुरुआत छोटे से भौगोलिक तथा सामाजिक दायरे से हुई, जिसने देखते-देखते अब एक विशाल वट वृक्ष का रुप ले लिया है। यह इस लिए स्म्भव हो पाया है कि आपकी शिक्षाऐं वक्त की कसौटी पर सही उतरी है। इसी लिए दुनियां की हर जुबांन बोलने वालो ने इनको सहर्ष अपनाया है।
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मुसलमान देश का सबसे पीड़ित और शोषित वर्ग

मो. रफीक चौहान(एडवोकेट)


मुसलमान देश के सबसे पीड़ित और शोषित वर्गों का हिस्सा बन चुके हैं। राजनीति में मुसलमान हाशिए पर हैं। प्रशासन, सेना और पुलिस में मुसलमानों की संख्या शर्मनाक रूप से कम है, न्यायालयों में मुसलमानों की उपस्थिति बहुत कम है। और बाकी कसर उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की आर्थिक नीति ने पूरी कर दी है, जिसकी मार मुसलमानों पर सबसे ज़्यादा पड़ रही है। डॉ. भीमराव अंबेदकर ने सामाजिक असमानता को प्रजातंत्र के लिए खतरा बताया था। मुसलमान सामाजिक समानता से कोसों दूर हैं और न ही उनकी राजनीतिक प्रजातंत्र में हिस्सेदारी है और न ही प्रशासनिक सेवाओं में।


मुसलमानों के पिछड़ेपन की वजह आज भारत के वेलफेयर स्टेट होने पर सवाल खड़ा कर रही है। यह प्रजातंत्र पर एक बदनुमा दाग बन कर उभर रहा है. एक सफल राजनीतिक प्रजातंत्र के लिए सामाजिक प्रजातंत्र ज़रूरी हिस्सा है। जब तक सामाजिक प्रजातंत्र का आधार न मिले, राजनीतिक प्रजातंत्र चल नहीं सकता। स्वतंत्रता को समानता से अलग नहीं किया जा सकता और न समानता को स्वतंत्रता से। इसी तरह स्वतंत्रता और समानता को बंधुत्व से अलग नहीं किया जा सकता।


भारत एक विरोधाभासी जीवन में प्रवेश कर चुका है. राजनीतिक समानता को एक व्यक्ति-एक वोट का सिद्धांत समझ लिया गया है। जबकि समाज में आर्थिक और सामाजिक असमानता है। भारत का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग पहले से ज्यादा शोषित, पहले से कहीं ज़्यादा पीड़ित और सत्ता से दूर चला गया है। यह स्थित देश में प्रजातंत्र के लिए खतरे की घंटी है। अफसोस की बात यह है कि देश चलाने वाले और खुद मुसलमान इस खतरे से बिल्कुल अंजान हैं।

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